रात

नीला गगन फिर झुक रहा है

टिमटिमाते तारों के बोझ से
धरती कि साँसें सन चुकी हैं
सर्द हो चुकी ओस से
 
आज चुप सी है चंचल चांदनी भी
झींगुर भी आज कुछ कुछ अनमने हैं …
पत्ते भी आज जाने क्यों तनिक उनींदे हैं
फुनगी पे टिक कर सो गयी चंचल हवा भी ..
समय ने आज शायद नैन अपने मूंदे हैं
मूक है आज प्रकृति रागिनी भी ….
चंदा भी मौन है .. छिपा हुआ.. दिखता नहीं…
मूक है आज चितवन भामिनी की …
रात सयानी काली स्याही बन के आई है
अम्बर कि दरारों से रिस रही है ज़मीं पर
यामिनी खुद भी तो रूठी हुई सी आई है
अनमनी है वो भी चंदा कि कमी पर
आज कोसा है सब कुछ.. ऊबा हुआ सा
रात का दोष नहीं , दोष है मन चंचल का
आज फिर बेवजह के सपनों में डूबा हुआ सा
चाहत कि झोली से सपने चुराना चाहता है…
पर गगन जानता है एक एक सपने की कीमत
ये तारे और क्या हैं? कुछ नहीं.. सपने अधूरे हैं
इन्ही के बोझ से अम्बर थकित है .. झुक गया है
बूढ़े अम्बर से दिल सपने चुराना चाहता है..

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